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Showing posts from September, 2019

PUNJABI

ਸੰਗ-ਸ਼ਰਮ ਦੀ ਘੁੰਡ ਦੇ ਓਹਲੇ ਅੱਖਰ ਮਾਰ `ਤੇ ਪੋਹਲੇ-ਪੋਹਲੇ  ਵਲੈਤਣ ਸਿਖ ਲਈ ਸੋਹਲੇ-ਸੋਹਲੇ , `ਤੇ ਆਪਣੇ ਹੱਥੀਂ ਬੇਦਖ਼ਲ ਕਰ `ਤੀ  ਜੋ ਮਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ , ਹੁਣ ਭਾਵੇਂ ਮੈਂ ਬੋਲਦਾ ਨਹੀਂ  ਪਰ ਉਂਝ ਜਮਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ । ਖੁੱਲੇ ਵੇਹੜੇ ਤਾਰਿਆਂ ਦੀ ਛਾਂਵੇਂ  ਡਾਹ ਵਾਣ ਦੇ ਮੰਜੇ ਥਾਂਵੋਂ-ਥਾਂਵੇਂ  ਪਾ ਲੱਤ ਕੜਿੰਗੀ ਸਿਰ ਧਰ ਕੇ ਬਾਹਵੇਂ , ਸੌਣਾ ਸੁਣਕੇ ਮਾਂ ਤੋਂ ਮਿੱਠੀ ਜੇਹੀ ਲੋਰੀ  ਉਹ ਹਰ ਰਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ , ਹੁਣ ਭਾਵੇਂ ਮੈਂ ਬੋਲਦਾ ਨਹੀਂ  ਪਰ ਉਂਝ ਜਮਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ । ਇੱਕ ਨਾਲ ਸੀ ਪੜਦੀ ਜੋ ਲਾਗਲੇ ਪਿੰਡ ਦੀ  ਕੱਚੀ ਡੰਡੀ `ਤੇ ਜਾਂਦੀ ਸੀ ਮਹਿਕਾਂ ਵੰਡਦੀ  ਤਿੱਖੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਹਿੱਕ ਸੀ ਚੰਡਦੀ , ਜੇਹਦੀ ਬਾਂਹ ਫੜੀ ਸੀ ਜੱਟ ਦੇ ਮੂਸਲ ਓਹਲੇ  ਉਹ ਪਹਿਲੀ ਮੁਲਾਕਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ , ਹੁਣ ਭਾਵੇਂ ਮੈਂ ਬੋਲਦਾ ਨਹੀਂ  ਪਰ ਉਂਝ ਜਮਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ । ਜਦ ਹੌਂਸਲੇ ਗ਼ਰੀਬੀ ਮੂਹਰੇ ਹਾਰ ਥੱਕੇ ਸੀ  ਨਿਕਲੇ ਪਿੰਡੋਂ ਮੋਢਿਆਂ ਉੱਤੇ ਭਾਰ ਚੱਕੇ ਸੀ  ਆ ਵੱਡੇ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਦੇ ਵਿੱਚ ਖਾਦੇ ਧੱਕੇ ਸੀ , ਜੋ ਸ਼ਾਹ ਤੋਂ ਚੱਕ ਪਾਈ ਸੀ ਵਿੱਚ ਬੋਝੇ ਦੇ  ਉਹ ਭਾਗਾਂ ਵਾਲੀ ਖੈਰਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ , ਹੁਣ ਭਾਵੇਂ ਮੈਂ ਬੋਲਦਾ ਨਹੀਂ  ਪਰ ਉਂਝ ਜਮਾਤ ਮੇਰੀ ਪੰਜਾਬੀ ਸੀ । ਹੁਣ ਪੂਰਾ "ਓ ਅ" ਕਿੱਥੇ ਆਵੇ  "ਗ ਘ", "ਜ ਝ&qu

KYA LIKHUN MAIN

लिखने बैठूँ तो समझ ना आए क्या लिखूँ मैं , तेरी महफ़िल की शहनाई लिखूँ या अपनी महफ़िल की तन्हाई लिखूँ मैं , उम्र भर जो तू करता रहा इस जोकर से , वो वफ़ा लिखूँ या, उस एक पल की बेवफ़ाई  लिखूँ मैं , होते देख बेगाना मुँह से निकली दुआ लिखूँ या दिल से निकली आह लिखूँ मैं। लिखने बैठूँ तो समझ ना आए क्या लिखूँ मैं। उस खुदा की कुदरत लिखूँ या इन्सान की फितरत लिखूँ मैं , जिसके बह गए सब ख्वाब पसीने में , उस गरीब की मेहनत लिखूँ या , किसी रईस बाप के बेटे की किस्मत लिखूँ मैं , अब बताओ उस की रहमत लिखूँ या फिर बेइन्साफ़ सज़ा लिखूँ मैं। लिखने बैठूँ तो समझ ना आए क्या लिखूँ मैं। देश में अर्थ-व्यवस्था की मार लिखूँ या विदेशी दौरे पर सरकार लिखूँ मैं , सड़क के इस ओर चलता कर-मुक्त योग का व्यापार लिखूँ या , उस पार मज़बूरी में चलता लाल बाज़ार लिखूँ मैं , अब पैकेट बंद पत्तियों का दाम लिखूँ या नंगे जिस्मों का भाव लिखूँ मैं। लिखने बैठूँ तो समझ ना आए क्या लिखूँ मैं। उसके नाम पर एक पैगाम लिखूँ या यह ख़त यूँही बेनाम लिखूँ मैं , ऐसे ही लिखदूँ मौसम का हाल उसे या हाल-ए-दिल ब्यान करते उसके इश्क़ का अंजाम लिखूँ  मैं

CHEHRE

यह चेहरे ही हैं जो कि पहचान है तेरी मेरी , यह तेरा चेहरा यह मेरा चेहरा है , यह इसका चेहरा वो उसका चेहरा है , कौन जानता इंसानों को इस चेहरों की दुनिया में , यहाँ तो सिर्फ यह चेहरे ही हैं जो कि पहचान है तेरी मेरी। यह चेहरे ही नाम हैं यह चेहरे ही बदनाम हैं , यह चेहरे ही बादशाह यह चेहरे ही ग़ुलाम हैं , यहाँ चेहरे ही लिखते हैं औक़ात सभी की , यह चेहरे ही तोहमत हैं यह चेहरे ही सलाम हैं , यह चेहरे कुछ खिले-खिले से , यह चेहरे कुछ बुझे-बुझे से , कौन जानता क्या हस्ती है किसी की , यहाँ तो सिर्फ यह चेहरे ही हैं जो कि पहचान है तेरी मेरी। यह चेहरे ही अपने हैं यह चेहरे ही पराये हैं , यह चेहरे ही प्यार यह चेहरे ही नफरत के साये हैं , जानता हूँ मेरी दुनिया में तेरे चेहरे का चाहवान ना कोई , सुना है तेरी दुनिया में भी मेरे चेहरे की पहचान ना कोई , तो चल आज एक सौदा करते हैं , आज से तू मेरा चेहरा लेले मुझे अपना चेहरा देदे , ले आज से तेरी दुनिया मेरी और मेरी दुनिया तेरी हुई , क्यूँकि कौन समझता है यहाँ दिल किसी का , यहाँ तो सिर्फ यह चेहरे ही हैं जो कि पहचान है तेरी मेरी ।।

NARGIS KA PHOOL

बहारें भी आयेंगी खिज़ाएँ भी आयेंगी , मद्धम हवाएँ भी आयेंगी , तलातुम ख़ेज़ घटाएँ भी आयेंगी , बशर ज़ात सा ही है यह मौसम दर-ब-दर टहकता ही रहेगा। लेकिन यह जो सूखे पत्तों में अकेला चमक रहा है , यह नरगिस का फूल है हर हाल में महकता ही रहेगा । किसी की रहमत का मोहताज नहीं है यह फूल यह खिलेगा , मुरझायेगा , फिर से खिलेगा , मिट्टी से जन्मा है मिट्टी में ही रहेगा लेकिन इसकी चाहत का पराग हर भँवरे की सांस में मिलेगा , सूरज का हम-साया है यह फूल हर रोज़ वो निकलेगा हर रोज़ यह चहकता ही रहेगा , यह नरगिस का फूल है हर हाल में महकता ही रहेगा । लेकिन ख़ुदी के कांटे ख़ुद को चोभ लेता है थोड़ा सा बेरहम है यह फूल , ख़ुद ख़ुदी से टूट कर ख़ुदी पर रो लेता है रंगों में लिपटा सहम है यह फूल , बगीचे से वीरान बगीचों की हस्ती है ख़ैर तुम्हारे गमले की क़ैद में भी दहकता ही रहेगा , यह नरगिस का फूल है हर हाल में महकता ही रहेगा । यह नरगिस का फूल है हर हाल में महकता ही रहेगा ।।

HUNAR

जानता हूँ कि रंगों से बेरंग तस्वीर हूँ एक , फिर भी सूनी दीवारें सजाने का हुनर रखता हूँ , बिन आवाज़ के बेताल साज़ हूँ एक फिर भी दिल बहलाने का हुनर रखता हूँ । माना कि एक तारा हूँ , गर्दिश का मारा हूँ , फिर भी रोशनाने का हुनर रखता हूँ , नम आँखों में सपनों की चाह देखने के लिए , खुद टूट जाने का हुनर रखता हूँ । नींद किसी के सिर से वार आई हैं यह आंखें , फिर भी ख्वाब सजाने का हुनर रखता हूँ , नसीब में तो नसीब नहीं, ख्वाबों में ही सही , उसकी बाहों में ढल जाने का हुनर रखता हूँ । माना कि हिम्मत नहीं है कुछ कह पाने की , लेकिन सब सह जाने का हुनर रखता हूँ , चाहे ग़मों की सियाहियाँ पड़ गई मासूम चेहरे पर, फिर भी जोकर ज़ात से हूँ , हसाने का हुनर रखता हूँ। अगर कोई गुफ़र है तुम्हारे दिल में तो तुम भी बोल दो , इल्ज़ामों से भरा पड़ा हूँ, लेकिन तहखाने का हुनर रखता हूँ , कड़वा  हूँ , लेकिन हर ज़ुबान पर हूँ , तोहमत भी हूँ , रहमत भी हूँ , महखाने का हुनर रखता हूँ ।।

TEEN PARINDE

यह कविता नहीं है यह कहानी है - कुछ सपनों की , कुछ अपनों की।  यह कुछ पंक्तियाँ बड़े ही सच्चे मन से , सही-गलत की समझ से दूर रह कर लिखी हैं जो आपके साथ सांझी कर रहा हूँ।  उम्मीद तथा निवेदन दोनों करता हूँ कि इनको यूँही सच्चे मन के साथ दिल से पढ़ना , दिमाग से नहीं। तीन परिंदे थे एक शाख पर रहते थे , छोटे नादान बच्चे से और कच्चे से पंख थे उनके , उड़ना अभी आता नहीं था यूँही हवा के संग आँख मिचोली खेलते , कुछ फड़-फड़ाते कुछ लड़-खड़ाते ख्वाबों के भर के बस्ते अपनी छोटी सी उड़ान में मस्त थे , लेकिन देख उनको यूँ हस्ते-खेलते मचने लगे थे हवा के झोंके , आंधी के संग हाथ मिलाया एक दिन ऐसा तूफ़ान मचाया , कि नए-नए जो पंख थे निकले उनको उड़ा के छोड़ा खुले आसमान के बीच में , अब जैसे तैसे सीख गए तीनों ऊँची उड़ाने हाथ जो पकडे थे कस के वो हाथों से फिसले , अब उड़ते तीनों अपने-अपने झुंड में आज़ाद परिंदे लगे निज़मों में बँधने , अब तो उड़ाने बन गईं कारोबार कमाई ना कोई आँख मिचोली ना छुपन-छुपाई , अब पेड़ों से पेड़ और देसों से देस ऊँची हवा में ऊँचा हो गया भेस , लेकिन अब भी मन में मिलने की आस ख्वाबों में बस वह

MUJHE PTA NAHI

मैंने पहली बार कुछ कब लिखा था  वो तो मुझे याद है  लेकिन आखरी बार कब और क्या लिखा  मुझे पता नहीं   कितने दिनों से कागज़ और कलम में  एक दूरी सी रखी थी  आज  सुबह से ही कलम डायरी में क्यूँ रखी  मुझे पता नहीं   गर्मी काफी है बाहर अँधेरा भी बहुत है  इतना तो इल्म है  लेकिन तारीख क्या है दिन कौनसा है समय क्या हुआ  मुझे पता नहीं   नीचे फ़र्श पर अल्फ़ाज़ बिखेर कर बैठा हूँ  मजमा सा लग गया है लेकिन आज भी कुछ लिख पाऊँगा या नहीं  मुझे पता नहीं   रेल की पटरी जैसे एक साथ चल रही हैं मेरी ज़िन्दगी में  दोनों में से क्या लिखूँ  तुझसे ना-चाहते दूरी या उससे ना-चाहते नज़दीकी  मुझे पता नहीं   आज आँखें बंद करके लिख रहा हूँ जैसे अक्सर तुम्हारे  माथे को चूम्मा करता था  अब छंद से भटक जाऊँ या क़ाफ़िए से उतर जाऊँ  मुझे पता नहीं   तुम्हें याद है मेरी हर कविता सबसे पहले तुम पढ़ा करती थी  फिर सबकी नज़र करता था  आज इसे पढ़ने वाली नज़रें तो बहुत हैं लेकिन तुम पढ़ोगी या नहीं  मुझे पता नहीं  इन बिन सोचे-समझे लफ़्ज़ों का शीर्षक तो मैंने लिख लिया  "मुझे पता नह