यह एक कोशिश अपने अधूरे अल्फ़ाज़ों को एक साथ पूरा करने की। मौत से बेफिक्री लेकिन जान का डर ना मोमिन की नमाज़ ना काफ़िर का कुफ़्र अपनों से पराया अपने ही घर में बेघर खुदी से रुसवा और दुनिया से बेख़बर यह बेचैन से दिन और न-गुज़र सी रातें यह नम सी धूप यह सूखे से अब्र तुम्हारी यादें और कुछ किताबें अब तो बस यही हैं मेरे हमसफ़र सफ़र से इश्क़ या सफ़र-ए-इश्क़ जैसे दोनों हुए अब एक बराबर वो राह तेरे घर की जो मालूम भी नहीं अब तो वही है मेरी मंज़िल सरासर तुम्हारे शहर की गलीयाँ और गलियों के कूचे दिल हाथ में लिए भटक रहे हैं दर-ब-दर तेरे दीद की चाहत और खुदी से राहत ढूंढ रही हैं यह आँखें बेसबर देखकर तुझको यूँ एक फ़ासले से ही एक पल में ही जी लेंगें हम ज़िंदगी भर खाली हाथ जो लौटा मैं तेरे शहर से तो तेरे दर पर होगी मेरी कब्र ता उम्र जो रहा तुम्हें देखकर जीता तुम्हें देखे बिन कैसे होगा हश्र खुद अपनी कलम से लिखी ज़िंदगी अपनी अधूरे अल्फ़ाज़ों सा ही रह गया यह अधूरा बशर अधूरे अल
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